प्रवीण दत्ता
राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस पर सभी अग्रजों, अनुजों और पाठकों को स्नेहिल नमस्कार।
यूं तो हमेशा से ही भारतीय राजनीति में किसी भी बड़े नेता का 'असल में बड़ा' होना उसकी मीडिया में 'छपास' से भी आंका जाता रहा है लेकिन अब मौसम बदल चुका है। राजस्थान भी इससे अछूता नहीं रहा। वो चाहे मोहन लाल सुखाड़िया रहे हों या भैरों सिंह शेखावत या फिर अशोक गहलोत हों या वसुंधरा राजे, इन सभी की लोकप्रियता में मीडिया के योगदान को नकारा नहीं जा सकता पर इन सभी के कैरियर ग्राफ़ में एक बात सामान है। इन सभी नेताओं ने अपने क्षेत्र के बाहर, राज्य के अन्य इलाकों में भी अपनी पहचान बनाई। फिर इसके लिए चाहे इन्हें क्षेत्रीय विधायकों/नेताओं का समर्थन लेना पड़ा हो या अपने रसूख से वहां की किसी समस्या का निराकरण किया हो।
पार्टियां भी पहले अपने किसी भी क्षेत्रीय नेता की इलाके में लोकप्रियता और उसकी योग्यता को देखकर उसे आगे बढ़ाती थी। इस दौरान वो नेता मीडिया की सहायता से अपनी उपलब्धियां अपनी पार्टी के शीर्ष और सीमित जनता तक पहुंचाता था। पर ख़ास बात यह थी कि राजनीति के उस काल खंड में पूछ 'मैरिट' की होती थी। इसी के बलबूते जयपुर से दूर स्थित उदयपुर के मोहन लाल सुखाड़िया, हरिदेव जोशी और शेखावाटी के भैरों सिंह उच्च पदों तक पहुंचे। भीलवाड़ा जैसे जनसंघ के गढ़ से, जातिगत गणित को दरकिनार कर, शिवचरण माथुर जैसे योग्य प्रशासक की खोज हुई। 'माली' समाज का एक व्यक्ति तीन तीन बार CM बना और यहां तक कि मध्य प्रदेश के पूर्व राज परिवार की वसुंधरा के राजस्थान को कर्म भूमि बनाने पर, पार्टी और जनता का भरपूर प्यार मिला। बात सिर्फ मुख्यमंत्री पद की नहीं - कांग्रेस-भाजपा के अलग-अलग मंत्रिमंडलों में अच्छे पद पाए मंत्रियों को याद करें तो सुदूर आदिवासी और रेगिस्तानी क्षेत्रों से आए विधायकों ने भी राजनीति में खुद को साबित किया, नाम किया। आज प्रमुख दलों का हाई कमांड ऊपर से नेता थोपने के सफल प्रयास करता दिखाई पड़ता है।
और ऐसा इन क्षेत्रीय नेताओं ने तब किया जब मीडिया का प्रचार-प्रसार आज के मुकाबले 10% भी नहीं था। मतलब नेता की लोकप्रियता मीडिया की मोहताज नहीं 'थी'। अखबार अपने अति सीमित सर्कुलेशन और सीमित पाठक संख्या के बावजूद अपना काम कर रहे थे। दैनिक अखबार की छोड़िए, साप्ताहिक और पाक्षिक अख़बारों के साथ पत्रिकाओं का दौर था। सभी की अपनी अलग हैडलाइन होती थी बिना इस बात की परवाह किए कि दूसरे क्या छाप रहे हैं। हर अखबार/मैगज़ीन के अपने ख़ास क्षेत्रीय नेता भी थे और इन्हीं के बलबूते ये छोटे अखबार 'बड़ी गंदगी' से बचे रहते थे। कई तो ऐसे थे जो स्थानीय विज्ञापनों के ही भरोसे थे और इन विज्ञापनों का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं था।
शुरु में न्यूज़ चैनल तो थे नहीं, बाद में ये अपनी पहुँच बना रहे थे। न्यूज़ चैनल्स के आ जाने के बाद भी अखबार अपनी ही बात कहते थे और जल्दी से न्यूज़ चैनल की प्राथमिकता को अपनी 'प्रायोरिटी' नहीं बनाते थे। 'पीआर' का खेल तब भी था, विज्ञापन तब भी पत्रकारिता की विवशता थे और यहां-वहां 'ब्लैक मेलिंग वाले 'चौपाने' भी थे। पर सब कुछ आटे में नमक जैसा था। सार यह कि मोटे तौर पर पत्रकारिता तब जन आकांक्षाओं का सही आंकलन करती थी और एक तरफा अभिव्यक्ति से बचती थी। इसीलिए मीडिया बहुत हद तक समाज का आइना था। उस दौर में भी बड़े नेताओं के कसीदे गढ़ने से मैं कतई इंकार नहीं कर रहा हूँ पर साथ ही उन्हीं बड़े नेताओं की खिलाफत को भी कहीं ना कहीं जगह मिलती थी।
फिर आया न्यूज़ चैनल्स की 'ब्रेकिंग न्यूज़' का दौर, संसाधनों से लाइव करने का जमाना, ग्लैमर का युग और सबसे बड़ी बात बिना पुष्टि किए खबरें देने का चलन। यहां भी मीडिया का एक बड़ा तबका सत्ता में बैठे लोगों को इनकी जनविरोधी नीतियों पर 'गरिया' देता था। इस असुर से पुराने 'कलमी' पत्रकार निपट पाते उससे पहले मीडिया में आ गए नई प्रजाति के 'उद्योगपति'। वे गोयंका जैसे उसूलों वाला इंडियन एक्सप्रेस या जनसत्ता नहीं चलाते थे या फिर जैन की तरह 'बैलेंस्ड इंफॉर्मेशन' देने का 'टाइम्स' नहीं "बेच" रहे थे। मीडिया अब 'फुल फ्लेजेड' धंधा बन चुका था। यही दौर था कि इस मीडिया ने राजनीति में 'लाइज़निंग' यानि दलाली करने वालों को भी महिमामंडित कर जेबें भरी और लोकप्रिय नेता हाशिये पर जाने शुरू हो गए। इनकी जगह बहुतायत में ऐसे रसूख और पैसे वालों ने ले ली जिनके लिए राजनीति 'मोटे इन्वेस्टमेंट और धाकड़ रिटर्न' का बिजनेस था।
अब अखबार सिर्फ न्यूज़ चैनल ही नहीं, इंटरनेट से भी प्रभावित होने लगे। 'आर्थिक उदारीकरण' में बढ़ते खर्चों में कॉर्पोरेट पत्रकारिता के अलावा 'क्लाइंट सर्विसिंग' भी होने लगी। और फिर आ गया सोशल मीडिया। अपनी आदत ने अनुसार अखबार और न्यूज़ चैनल चलाने वालों ने "हर किसी के हाथ में आए इस उस्तरे' को पहले नजर अंदाज़ ही किया। जब जागे तब तक एक व्यक्ति इसे "टूल" बनाकर सारे मीडिया के रेंगने,चलने और भागने के लिए ऐसा "मैगा हाई वे" बना चुका था कि अब 90% को सिर्फ 'फॉलो" करना था। जब मीडिया किसी अत्यंत शक्तिशाली को सिर्फ "फॉलो" करता है तो फिर ज्यादातर क्षेत्रीय नेता/ राष्ट्रीय नेता/ कर्मठ कार्यकर्त्ता - सभी - अपनी 'माली औकात" से बाहर मीडिया के सामने नतमस्तक हो जाते हैं या फिर 'राजनीति उनसे मुक्त' हो जाती है।
आप में से सभी ने 'लोकतंत्र' की परिभाषा पढ़ी होगी। पढ़ाई तो अभी भी वही जा रही है लेकिन 'लोक' का मतलब लोग या जनता नहीं रह गया। लोक माने एक 'स्पेस', 'स्थान' जैसे आकाश लोक, पाताल लोक या धरती लोक। राजनीतिज्ञों को वोट देने वाले, जनता से वोट लेने वाले और इस सारी प्रक्रिया को वोटरों तक पहुंचाने वाले मीडिया - सभी ने अपना 'लोक' चुन लिया है। अब जिस जिस को यह सुहा रहा है वो उसी 'लोक' में रहेगा और जिसको 'घुटन और तिरस्कार' का अनुभव हो रहा है वो अपना 'लोक' बदलेगा।
अब भी मुट्ठी भर "सनकी" हैं जो फिर से 'लोकतंत्र' की पुरानी और असल परिभाषा वापस आने की कहानी बेबाक और बेलाग तरीके से कहेंगे। हां यह बात और है कि उन्हें अब शायद कोई 'मीडिया' का हिस्सा ना माने। वैसे भी वर्तमान मीडिया का हिस्सा तो वे बन भी कब पाए थे। ऐसे 'अल्पसंख्यकों' की बात खामखां आ गई बीच में।
पर जिन अख़बारों के लिए आप पैसे देते हो, जिन न्यूज़ चैनलों के आप सब्सक्राइबर होने का भी हर महीने आप भुगतान करते हो - उनको कम से कम आपकी आवाज सदन में उठाने वाले शख्स का ठेका मत दीजिए। जैसे नेता 'फ्री' में राशन या रेवड़ी देकर अपनी ढींग हांकते हैं और मीडिया की मिलीभगत से घोटालों की खबर की 'भ्रूण हत्या' करवा देते हैं वैसे ही मीडिया सच्ची, बेलाग और जन सरोकार से जुड़ी खबरों के नाम पर रोजाना आपको 'पाठक संख्या' व 'दर्शक संख्या' नाम पर बेचते हैं। राजनीतिज्ञों और मीडिया मीडिया के लिए अगर उनका काम 'धंधा' है तो मत भूलिए आप 'ग्राहक' हैं।
भूल जाइये "लोक" वाला तंत्र बस याद रहिये कि बाजारवादी व्यवस्था में "कस्टमर इज द किंग"..... माने "ग्राहक ही राजा होता है"। तो राजा बनिए - सिर्फ फॉलोवर, अंधभक्त, पाठक और दर्शक मत बने रहिये। आखिर कब तक व्हाट्सएप्प फॉरवर्ड करके 'देशभक्ति' का लबादा ओढ़े रहेंगे ? कब तक दूसरों की प्रायोजित फेसबुक पोस्ट के 'लाइक्स' में एक संख्या बने रहेंगे ? जो ऐसा होता है नेता और मीडिया उसे 'टेकन फॉर ग्रांटेड लेते हैं'। इसका सीधा मतलब है नेता और मीडिया दोनों यह मानते हैं कि कुछ भी हो जाए आप उनके ही साथ रहेंगे। एक भाषण, एक जुमले या एक गारंटी में 'निहाल' हो जाएंगे। क्या समझते हैं इस युग ने राजनीतिज्ञ जनता को - कोई कहता है "नीच", कोई " मौत का सौदागर", कोई "बटन यहां दबाओ, करंट फलां जगह लगना चाहिए", कोई "बटन दबाकर फांसी दे दो "। ये लोग वोट मांगते हैं या किसी की सुपारी देने आते हैं ? पर शायद गलती पूरी इनकी भी नहीं है। मैंने देखा है जब कोई घूमने या किसी काम से किसी और प्रदेश जाता है तो अपने बोलने का अंदाज स्थानीय करने की कोशिश करता है। जिससे वार्तालाप आसानी से हो सके। गोवा में ज्यादातर सैलानी 'बीच शर्ट', 'शॉर्ट्स', 'स्कर्ट' आदि पहने दिखते हैं जबकि उनका असली पहनावा अलग होता है। ऐसे ही किसी विदेशी पर्यटक से अपने ही प्रदेश में बात करते समय लोग इंग्लिश थोड़े 'एक्सेंट' के साथ बोलते हैं। यानि अनजाने में ही लोग सामने वाले या स्थानीय पसंद/नापसंद को अपना लेते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं। पर कुछ ऐसे भी होते हैं जहाँ जाते हैं वहां का और कुछ सीखें ना वहां के अपशब्द और गालियां जरुर सीखते हैं और जहां कहीं महफ़िल जम जाए 'याराना बढ़ाने' की गरज से 'स्थानीय विशेषणों' का प्रयोग भी कर देते हैं। लेकिन वहीं - जहां उन्हें इस प्रयोग के बुरा लगने का अंदेशा नहीं होता है।
अब समझ लीजिये ये ऊलजलूल बोलने वाले नेता आपको क्या समझते हैं और क्या सोचकर ऐसी भाषा बोलते हैं। जाहिर है वे मानकर चलते हैं कि उनकी 'रसभरी' बात का आप पर जबरदस्त प्रभाव होता है। ऐसे व्यक्ति या समूह (यानि गलियों में रास लेने वाले हम और आप) की कद्र कौन करेगा भला ?
नेता और मीडिया कभी किसी के भाई, बेटे या रिश्तेदार नहीं होते। बाजार क्या कभी किसी का हुआ है ? सो - जागो ग्राहक जागो।
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