जयपुर - रूपेश टिंकर
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने तो संवेदनशीलता दिखाते हुए पत्रकारों की आवास की नई योजनाएं बनाने और पुरानी लंबित योजनाओं के हल के लिए अधिकारियों को निर्देश दिए हैं और प्रदेश में कई जगह योजनाएं साकार भी हो रही हैं, लेकिन राजधानी में ही आखिर क्यों पत्रकार सफल नहीं हो पा रहे हैं। उदयपुर, जोधपुर, अलवर, बांसवाड़ा, अजमेर, गंगानगर और कई जगह पर मुख्यमंत्री गहलोत के इस कार्यकाल में भी पत्रकारों की आवास योजनाएं साकार हो रही है। हाल ही 23 मई को भी स्वायत्त शासन विभाग ने नगर, कस्बों के निकायों को फिर से निर्देश दिए हैं। 
दरअसल मुख्यमंत्री गहलोत ने तो पूरे मन से पत्रकारों को ज्यादा से ज्यादा प्लॉट देकर उनकी मदद करने की मंशा दिखाई है, लेकिन राजधानी में पत्रकारों की गंदी राजनीति और आपसी खींचतान का फायदा नकारा नेताओं ने उठाया है। सभी जानते हैं कि पिंकसिटी प्रेस एनक्लेव, नायला को कोर्ट में उलझाने वाले कोई और नहीं, पत्रकारों के ही छिपे हुए नेता थे। साल 2013 में इस योजना को लाने का श्रेय प्रेस क्लब के तत्कालीन अध्यक्ष नीरज मेहरा को न मिल जाए। किसी ने सुनील हेड़ा नामक याचिकाकर्ता को कोर्ट में खड़ा कर दिया। हेड़ा ने भी पत्रकार नेताओं की अज्ञानता का पूरा लाभ उठाया और योजना के निरस्त हो चुके ब्रोशर के आधार पर पीआईएल लगाई। गैर पत्रकार हेड़ा ने लॉटरी हो चुके 571 आवंटियों में से 19 खास पत्रकारों को नामजद अपात्र आरोपी बनाया। अज्ञानता के चलते एक मामूली गैर पत्रकार के आगे सब धुरंधर ढेर हो गए। अधिकारियों के स्नेह प्रसाद के भरोसे पत्रकारों पर राज करने वाले कोर्ट को यह तक नहीं बता पाए कि हेड़ा ने कोर्ट को गुमराह किया और जेडीए के जिस ब्रोशर की पालना के आदेश कोर्ट से कराए थे, वह तो उदयपुरिया के लिए बना था। प्लॉट तो नायला में दिए थे। 571 पत्रकारों की पात्रता और चयन पर सवाल उठे थे, जिसका जिम्मा तत्कालीन आवास समिति का था। राज्य सरकार की शक्तियों से युक्त उच्च स्तरीय इस समिति ने चयन प्रक्रिया के दौरान पूरे ब्रोशर को ही बदल दिया था। आज जिस लिपिकीय त्रुटि पर मामला फंसा है, उसे तो समिति की बैठकों में विलोपित किया जा चुका था। 
जब मामले में पुनरादेश के लिए जेडीए और सरकार के वकील कोर्ट गए तो कोर्ट का पहला सवाल ही यही था कि ब्रोशर को खारिज किया है या नहीं। जिसका जवाब तक कोर्ट को नहीं दिया। इस पर नाराज कोर्ट ने पुनरादेश का प्रार्थना पत्र ही खारिज कर दिया। कोर्ट ने जेडीए पक्ष की सब बातें मानी और दूसरे निर्णय में भी लिखी कि लिपिकीय त्रुटि से अधिस्वीकरण पत्र की अनिवार्यता ब्रोशर में जुड़ी है और यह राज्य की पत्रकार आवास की नीति और आदेश की भी अवहेलना है। कोर्ट ने निर्णय में लिखा है कि 15 दिन में मामले में आवश्यक जांच कर विधिसम्मत कार्यवाही के निर्देश की पालना की जानी थी। न तो ब्रोशर खारिज किया और न ही किसी प्रकार की विधि सम्मत जांच की तो सुनने की गुंजाइश ही खत्म हो गई है। 
आज राजधानी के युवा पत्रकार भी वही गलती दोहरा चुके हैं, जो 10 साल पहले 571 आवंटी पत्रकारों ने की थीं। वे भी बेसतूने नेताओं के भरोसे में फंस गए हैं। इन्हें 571 आवंटियों के नाम लिखे प्लॉटों के सपने अभी तक दिखाए जा रहे हैं। जबकि होना ये चाहिए था कि पुरानी योजना में दिमाग लगाने के बजाए नई जमीन तलाश कर योजना को मूर्त रूप दिया जाना था। मुख्यमंत्री गहलोत ने इसी की जिम्मेदारी दिसंबर 2021 में प्रदेश स्तरीय पत्रकार आवास समिति बनाकर सौंपी थी। 
बुद्धि हीनता की हद देखो कि अपने इस काम में नाकामी का ठीकरा भी मुख्यमंत्री पर ही फोड़ने लगे हैं। एक ओर तो ये मुख्यमंत्री को अनैतिक सलाह देते हैं कि पुरानी आवास समिति की साल 2010 से 2013 तक की गई 3 साल की मेहनत पर पानी फेर दे और योजना को बिखेर कर सभी से नए फार्म भरा लें। नकारेपन के चलते विधानसभा चुनाव की आचार संहिता का समय भी आ गया है। और युवा साथियों को अभी भी यही दिलासा दे रहे हैं कि 3 माह में प्लॉट दिला देंगे। हास्यास्पद है कि पूरे कार्यकाल में नकारा रहे अब दावा करते हैं कि उस समय ईमानदारों के 3 साल के किए पर पानी फेरकर 3 माह में सब निपटा देंगे। निश्चित ही कुछ नकाराओं के चलते युवा पत्रकार अशोक गहलोत काल के सुअवसर को खोने की कगार पर आ गए हैं। 
दरअसल जिस जमीन पर युवाओं को सपने दिखाए गए हैं, वह तो 571 आवंटियों ने खुद की मेहनत से इकोलॉजिकल नाम के गड्ढे से बाहर निकाली है, जिस पर उनका नाम लिखा जा चुका है। इन सबके जिम्मेदारों से ये तो पूछा जाना ही चाहिए कि क्या सरकार के पास जमीनों की कमी हो गई थी, जो 571 परिवारों के सपनों से बंधी जमीन पर ही कुदृष्टि डाली गई। युवा पत्रकारों को 571 वरिष्ठों से ये जरूर सीखना चाहिए कि पत्रकारिता ठोस तथ्यों और सत्य पर की जाती है, न कि साजिशों और निराधार प्रलोभनों के आधार पर। मुख्यमंत्री के निर्देश पर प्रदेश भर में पत्रकारों को भूखंड दिए जा रहे हैं। जयपुर में भी निर्दोष आवंटी पत्रकारों को न्याय मिलेगा। मुख्यमंत्री को दोष देना बंद कर दें नेता, क्योंकि सत्य का गला घोटकर और पुरानों को पहले दिए आवास छीनकर, उनके सपनों और संघर्ष को रौंदकर तो वे भी नयों को आबाद नहीं करेंगे।