जयपुर ब्यूरो रिपोर्ट।
जयपुर ब्लास्ट के आरोपियों को बरी करने के हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सरकार व पीड़ितों ने सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दायर की है। 767 पेज की एसएलपी में सरकार ने 3 आधार व 7 बिंदुओं में बताया है कि फैसला गलत कैसे है?
तर्क दिया- हाई कोर्ट ने सबूतों की अनदेखी की जिसके आधार पर निचली कोर्ट ने फांसी सुनाई थी। आरोपियों ने 11 मई 2008 को जयपुर में रेकी की और 13 मई को बम रखकर लौट गए। हाई कोर्ट ने सैफ की स्वीकारोक्ति को नकारा। बाटला एनकाउंटर में जयपुर ब्लास्ट का खुलासा हुआ। इसमें दिल्ली पुलिस की शिनाख्त परेड को गलत माना।
3 तर्क- इन्हीं आरोपियों ने अन्य राज्यों में भी धमाके किए
- आरोपी मो. सैफ को निचली कोर्ट ने फांसी सुनाई, हाई कोर्ट ने बरी किया। जघन्य अपराध को देखते हुए हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगे क्योंकि ऐसे लोगों की रिहाई समाज के लिए खतरा है।
- आरोपियों पर अन्य राज्यों में भी ब्लास्ट के केस हैं। सैफ समेत अन्य को फांसी सुनाई गई है। अपील गुजरात में पेंडिंग है। आरिफ को बाटला केस में इंस्पेक्टर एमसी शर्मा की हत्या में फांसी सुनाई गई है।
- हाईकोर्ट ने जांच एजेंसी पर निराधार टिप्पणियां की, भूमिका जांच के निर्देश दिए। एजेंसी ने सबूत जुटाने की कोशिश की है इसलिए जांच अफसरों पर कार्रवाई का निर्देश गलत। इस पर भी रोक लगे।
सुप्रीम कोर्ट में सरकार v/s फैसला: आतंकी ने जहां से 20 हजार छर्रे खरीदे, उस दुकानदार ने सैफ की पहचान की लेकिन हाई कोर्ट ने इसे भी नहीं माना
1. एटीएस के डिस्क्लोजर स्टेटमेंट के मुताबिक- ब्लास्ट का खुलासा 4 माह बाद बाटला हाउस एनकाउंटर के आरोपी सैफ ने किया था। कोर्ट ने सैफ का स्टेटमेंट सही नहीं माना। कोर्ट का तर्क था बाटला हाउस मामले से जयपुर ब्लास्ट का खुलासा हुआ था तो पुलिस ने हादसे के दूसरे ही दिन किशनपोल बाजार में दुकानदारों से पूछताछ कैसे की और उनकी बिल बुक को कैसे सीज किया?
जवाब- आरोपी का डिस्क्लोजर स्टेटमेंट दिल्ली पुलिस के एएसपी संजीव यादव ने लिया था और निचली कोर्ट ने सही माना है। दिल्ली पुलिस का बयान राजस्थान पुलिस की जांच से अलग था।
2. हाई कोर्ट ने मामले में आराेपियों की शिनाख्त परेड को भी गलत माना- परेड में मजिस्ट्रेट के साथ आईओ भी गए थे। नियमानुसार, शिनाख्त परेड में आईओ जेल में नहीं जाता है। आरोपियों ने जेल रजिस्टर का हवाला देते हुए कहा कि केस के आईओ जेल में गए थे।
जवाब- आरोपियों की शिनाख्त परेड राजस्थान पुलिस नियम 1965 के तहत हुई। हाई कोर्ट का ऐसा कहना कि परेड में आईओ मौजूद थे, गलत है। जेल रजिस्टर का ऐसा साक्ष्य या सबूत को जांच प्रक्रिया में शामिल ही नहीं किया गया। शिनाख्त परेड को गलत मानना मामले के तथ्यों पर टिकता नहीं है।
3. जांच एजेंसी एटीएस ने जांच रिपोर्ट में बम में उपयोग किए गए छर्रों को दिल्ली की जामा मजिस्द के सामने से खरीदा जाना बताया है, जबकि बम ब्लास्ट में मारे गए और घायल लोगों से जिन छर्रों को बरामद किया है वे उन छर्रों से मैच ही नहीं हो रहे।
जवाब- सैफ ने बयान में कहा था कि उसने आरिफ के साथ जयपुर बम ब्लास्ट से पहले चांदनी चौक से 20000 साइकिल बेयरिंग खरीदी थीं। वह दुकान की पहचान भी कर सकता है। दुकान मालिक सुभाष चंद ने मोहम्मद सैफ की पहचान भी की थी। हाईकोर्ट ने इस तथ्य की भी पूरी तरह से अनदेखी की।
4. पुलिस ने जयपुर में किशनपोल से खरीदी गई साइकिल की बिल बुक चार साल बाद कोर्ट में पेश की है। जो फ्रेम बिल बुक में है उस फ्रेम की साइकिल का उपयोग बम ब्लास्ट में नहीं किया गया है। बिल बुक में कांट-छांट की गई है। ऐसे में आरोपियों को बरी कर दिया गया।
जवाब- सैफ ने साइकिल में बम लगाया था। उसने अंजू साइकिल कंपनी से हर्ष यादव नाम से साइकिल खरीदी थी। सैफ की लिखावट की पुष्टि एफएसएल में हुई थी। हाईकोर्ट ने साइकिल फ्रेम के आधार पर अभियोजन की कहानी नहीं मानी है, जबकि फ्रेम के नंबर मैच कर रहे है।
5. अभियोजन की यह कहानी नहीं टिक पाई कि आरोपी दिल्ली से बस से आए थे और उसी दिन शताब्दी ट्रेन से वापस चले गए। जबकि जिस बस से इनका आना बताया है वह दोपहर ढाई बजे आती है। इसके अलावा आरोपियाें को हिन्दू नाम हर्ष यादव, जितेन्द्र , राजहंस व विकास नाम से आना बताया है, लेकिन जिन्होंने साईकल खरीदी वो वे नाम नहीं हैं जो बस से आए थे।
जवाब- सैफ ने बयान दिया था कि वह और उसके दो साथी रोडवेज बस से 13 मई 2008 को जयपुर आए थे। टिकट संख्या 33, 34 और 35 पर यात्रा की थी। स्टेटमेंट से ही पता चला था कि अजमेर शताब्दी ट्रेन के कोच नंबर सी-3 व सी-एक के आरक्षण चार्ट के अनुसार सभी दस आरोपी जयपुर में बम लगाकर दिल्ली लौटे थे। सीट 31 पर राज हंस यादव (सरवर), सीट नंबर 43 पर हर्ष यादव (सैफ), सीट नंबर 44 पर सुनील कुमार, सीट नंबर 49 पर राहुल, सीट नंबर 59 पर विकास सोनी और सीट नंबर 60 पर राकेश मित्तल, सीट नंबर 64 पर जितेंद्र सिंह (सलमान), सीट नंबर 65 पर प्रशांत राय, सीट नंबर 66 पर राजेश अग्रवाल और सीट नंबर 37 पर अमित पाल (कोच सी-1) में यात्रा की थी।
6. एटीएस की डिस्क्लोजर रिपोर्ट में चारों आरोपियों को दिल्ली से नाम बदलकर डीलक्स बस से जयपुर आना बताया गया है। लेकिन डीलक्स बस के रिजर्वेशन व दिल्ली और जयपुर के बस स्टैंडों के सीसीटीवी कैमरों की जांच नहीं की गई। निचली कोर्ट में ट्रायल के दौरान कोई बस टिकिट ही पेश नहीं किया गया।
जवाब- हाई कोर्ट का आरोपियों को दोषमुक्त करने के लिया यह आधार गलत है। हाई कोर्ट ने माना था कि स्टेशन, बस स्टैंड व अन्य साइट की जांच में अभियोजन पक्ष आरोपियों के खिलाफ सीसीटीवी फुटेज प्राप्त करने में विफल रहा है। साल 2008 की रेलवे व रोडवेज के अफसरों की पेश की गई रिपोर्ट से साबित है कि रेलवे स्टेशन व बस स्टैंड पर कोई भी सीसीटीवी फुटेज नहीं थे। पुलिस व जांच एजेंसी के पास केवल यह जानकारी थी कि 13 मई को जयपुर मं 9जगहों पर बम ब्लास्ट करने के लिए आईईडी का इस्तेमाल किया गया था और एफएसएल रिपोर्ट में भी साबित था कि विस्फोटकों को साइकिल पर लादकर ब्लास्ट की घटना को अंजाम दिया था। लेकिन मोहम्मद सैफ के खुलासे से पता चला था कि बम ब्लास्ट के लिए दस जनों ने दिल्ली से जयपुर की यात्रा की थी।
7. पुलिस ने बम ब्लास्ट की जिम्मेदारी लेने वाले जिस ईमेल के आधार पर पूरा केस बनाया है उसमें उस व्यक्ति के बयान ही दर्ज नहीं कराए जिसे आतंकियों ने ईमेल भेजा था। इसके अलावा ईमेल फैजाबाद के मधुकर मिश्रा के साइबर कैफे से भेजा गया था और उस समय मिश्रा वहां पर मौजूद ही नहीं थे। जिस कैफे से ईमेल किया था उसके सीपीयू में वह ईमेल ही नहीं था।
जवाब- मामले की सुनवाई के दौरान बचाव पक्ष ने सेक्शन 65 बी के सर्टिफिकेट को लेकर कोई भी आपत्ति नहीं की है। वहीं शकर दत्त ने जब ईमेल की कॉपी को निचली कोर्ट में पेश किया तो भी बचाव पक्ष ने केवल बचाव पक्ष के दो गवाहों से ही पूछताछ की थी। ऐसे में जब बचाव पक्ष ने निचली कोर्ट में ही जिस बिन्दु पर आपत्ति दर्ज नहीं कराई है उसे अपीलीय स्तर पर नहीं देखा जा सकता और यह कानूनी सिद्दांतों का उल्लंघन है। इसके अलावा नोडल ऑफिसर ने भी अपने बयानों में आरोपियो के बीच हुए कॉल के बीच के इंटरलिंक को समझाया था। यह महत्वपूर्ण साक्ष्य था और इसे अस्वीकार करने में भी हाईकोर्ट ने गलती की है।
परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर सजा होनी चाहिए
हाईकोर्ट के आपराधिक मामलों के अधिवक्ता राजेश गोस्वामी का कहना है कि जहां पर घटना के चश्मदीद गवाह नहीं हों वहां पर परिस्थितिजन्य साक्ष्यों को भी देखा जाता है। केवल एक ही साक्ष्य के आधार पर ना तो किसी को सजा दी जा सकती है और ना ही किसी को दोषमुक्त ही किया जाता है। यदि केस में परिस्थितिजन्य साक्ष्य हों और केस की कड़ी से कड़ी जुड़ रही है तो ऐसे में आरोपियों को सजा दी जा सकती है।
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