शायर बसीर बद्र अपनी शायरी में जो कहते रहे हैं उन बातों को कुछ लोग सदियों से अपने जीवन में उतारते रहे हैं। बद्र ने कहा है
हम तो दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे
रास्ता हो जायेगा ।
18वीं सदी के दौरान फ्रांस सहित करीब पूरे यूरोप में महिलाओं को विज्ञान के क्षैत्र
में प्रविष्ट होने से वैसे ही रोका जाता था जैसे प्राचीन भारत में महिलाओं को वेद अध्ययन
से रोका जाता था। फ्रांस का गणित और फिजिक्स का पूरा विज्ञान पुरुषों के आधीन था। इसके
अलावा साक्षरता से अधिक आगे चलकर महिलाओं की शिक्षा को भी कोई प्रोत्साहन नहीं था।
पहली अप्रैल 1776 जन्मी मैरी सॉफी जर्मेन के लिए तो साक्षरता भी मुश्किल हो गई
थी क्योंकि उसके स्कूल जाने के दिनों में ही फ्रांस में क्रांति हो गई थी। जब स्कूल
शिक्षा ही पूरी नहीं हुई तो कॉलेज में प्रविष्टि तो संभव ही नहीं थी।
पर यह बालिका एक अलग ही व्यक्तित्व लेकर जन्मी थी। स्कूल और कॉलेज की शिक्षा की कमी
को इस बालिका से स्वयं शिक्षा से पूरा किया और इतना ही नहीं उसने गणित को अपना विषय
चुना जो कि अपने आप में एक समाज विरोधी कृत्य माना जाता था। पिता और समाज के विरोध
के बावजूद जर्मेंन ने अपना गणित का अध्ययन व्यक्तिगत स्तर पर जारी रखा। वह छुप कर अपने
पिता की लाइब्रेरी से किताबें लेकर पढ़ती रही और एक छद्मनाम से एक नई खुली पॉलीटेक्निक
में गणित की कक्षा में जाती रही पर उसे इजाजत नहीं मिली। इसी बीच पॉलीटेक्निक के एक
सहृदय अध्यापक ने उसकी लगन देख कर उसका संरक्षक बनना स्वीकार कर लिया और जर्मेन को
कक्षा के लेक्चर्स की प्रतिलिपि मिलनी प्रारंभ हो गई।
यहां जर्मेन ने अंकों के सिद्धांत के बारे में गहन अध्ययन करते हुए अंक सिद्धांत पर
अपने विचार रखने प्रारंभ किए। साथ में एलास्टिसिटी थ्योरी यानी लोचता का सिद्धांत जैसे
जटिल विषयों पर भी लिखना प्रारंभ किया। जर्मेन ने अपने लेख गणित के एक बड़े लेखक को
भेजे जिन्हे उसने अपनी पुस्तक में परिशिष्ठ के रूप में प्रकाशित किया। गणित में फर्मेट
की आखिरी थ्योरम बड़ी जटिल मानी गई है। जर्मेन ने इसे सिद्ध करने का बीड़ा उठाया और
अपने जीवन के आखिरी दिनों में वह इस मंजिल को पाने में सफल भी हुई।
अब उसकी मंजिल प्रतिष्ठित फ्रेंच विज्ञान अकादमी से सम्मान पाना था। जर्मेन के पहले
दो लेखों को अकादमी ने अस्वीकार कर दिया। पर इस जुझारू महिला ने हार स्वीकार नहीं की।
उसने सपाट और गोलाकार सतह पर कंपन के प्रभावों का अध्ययन कर दो लेख लिखे। इन लेखों
के महत्व को देख कर फ्रेंच विज्ञान अकादमी ने 1816 में उसे विज्ञान पुरुस्कार से सम्मानित
किया। इस अति प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पुरुस्कार को प्राप्त करने वाली वे पहली महिला बनी
पर उनको फर्मेट की आखिरी थ्योरम को सत्यापित करने के लिए सबसे ज्यादा जाना जाता है।
उम्र की आखिरी सीढ़ियों पर पहुंचने के बाद भी जर्मेन की ज्ञान पिपासा नहीं बुझी और
उसने दर्शनशास्त्र और मनोविज्ञान का अध्ययन प्रारंभ किया। पुरुषों का पाषाण ह्रदय पिघलने
लगा और तय किया कि मैरी सोफी जर्मेन को डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया जाय
पर जिस दिन यह निर्णय वास्तविकता में बदला, इस महान जुझारू विदुषी ने इस संसार को अलविदा
कह दिया। निर्णायक मंडल के सदस्यों की आंखें नम हो गई जब यह समाचार उन लोगों तक पहुंचा।
न जाने कल हों कहां,
साथ अब हवा के हैं
कि हम परिंदे,
मकामात ए गुमशुदा के हैं।।
( राजेंद्र मनचंदा )
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