अफ्रीका की महान रिफ्ट वैली में जगह जगह पर सोडे की झीलें हैं जो कि विभिन्न रंगों से रंगी होती हैं - मटर जैसी हरी, गुलाबी और एकदम ऐसी सफेद कि दोपहर धूप में आंखें चुंधिया जाएं। कुछ तो चमकती हैं जबकि कुछ गर्म पानी के झरनों सहित बुलबुले छोड़ती हैं। इनको हरा या गुलाबी रंग उनमें पल रहे खरबों सूक्ष्म कीट और काई से मिलता है। जिन झीलों में पानी सूख जाता है वे सोडे के कारण झक्क सफेद नजर आती हैं। इनमे मुख्यतया कैल्शियम कार्बोनेट होता है जिसे वाशिंग सोडा कहा जाता है। मगड़ी झील और नटरों झील सबसे उष्ण एवम् गहरी हैं और उनमें सबसे ज्यादा सोडा है। ये झीलें मीलों लंबी और चौड़ी है और दोपहर में 60 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तापमान होने से ज्यादातर समय सुखी और तपती रहती है। सिर्फ बरसात में पानी नजर आता है।

बोगोरिया, नकुरू और एलिमेंटिट झील तुलनात्मक रूप से ठंडी हैं जिनमें जीवन पनपता है। नीचे से निकलते झरनों के साथ ज्वालामुखी का सोडा लगातार ऊपर आता रहता है जिसके फलस्वरूप बीसवीं सदी के प्रारंभ से लेकर अब तक खनन के बावजूद उतनी ही मात्रा बनी हुई है।  ज्वालामुखी की गर्म चट्टाने पानी को गरम रखती हैं पर फिर भी मछलियों की कुछ विशेष प्रजातियां यहां पनप गई हैं।

हालांकि मानव और अन्य जीवन तो यहां नहीं रह पाते पर कुछ फंगस, एल्गी और अन्य कीड़े अथाह मात्रा में बढ़ते  हैं। ये पानी के जीव लाखों की संख्या में रह रहे फलामिंगो पक्षियों का भोजन हैं। यहां तक कि गुलाबी रंग के कीड़ों को खाने से इन पक्षियों के पंखों का एक हिस्सा गुलाबी हो गया है। ये पक्षी अपने अंडे झील में काफी गहराई में जा कर वहां पड़े पत्थरों की ओट में देते हैं ताकि मनुष्य और बाकी जानवर वहां तक पहुंच ही नहीं पाएं।

     सालों पहले सन 1950 में लेस्ली ब्राउन नामक एक शक्तिशाली अंग्रेज ने झील के अंदर तक जाने की ठानी। कुछ ही मीटर चलने के बाद उसके पैर धसने लगे, कई दिनों का पानी चंद ही घंटों में पीना पड़ गया। जैसे तैसे वह वापस लौटा, कई दिनों तक बेहोश रहा और उसकी जिंदगी अधर झूल में रही। दोनों पैरों में त्वचा की ग्राफ्टिंग करनी पड़ी। उसके बाद किसी दूसरे इंसान ने इन झीलों पर कदम रखने की हिम्मत नहीं की।