संसद का मॉनसून सत्र जारी है. लोकसभा बुलेटिन के अनुसार, इसी सत्र में सरकार मानव तस्करी के खिलाफ व्यक्तियों की तस्करी (रोकथाम, देखभाल और पुनर्वास) विधेयक, 2021 को पेश करने जा रही है. हालांकि इस विधेयक को इससे पहले 2018 में लोकसभा में पारित भी कर दिया था पर उस समय राज्य सभा में यह पारित न हो सका. अब जब एक बार फिर 2022 में इसे क़ानून का जामा पहनाने की तैयारी है तो देखना यह है कि क्या इसे 30 जुलाई 2022 से पहले पूरा किया जा सकेगा जब दुनिया मानव तस्करी के खिलाफ ‘वर्ल्ड डे अगेंस्ट ट्रैफिकिंग इन पर्सन्स’ मनाती है.
वैसे यह अच्छी बात है कि देश में
मानव तस्करी के बारे में क़ानून का एक विस्तृत मसौदा तैयार किया गया है, जिसमें सजा और
जुर्माने के कड़े प्रावधानों के साथ रोकथाम, देखभाल और पुनर्वास जैसे नए आयामों
को भी शामिल किया गया है और जिसे आम जनता और नागरिक संगठनों से रायशुमारी के बाद
तैयार किया गया है. पर फिर भी यह देखना जरूरी होगा कि यह विधेयक अपने नए स्वरुप
में आज के वैश्वीकरण के युग में, जब ट्रैफिकिंग के तौर-तरीके बेहद पेचीदे
हो गए हैं और राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय स्तर पर संगठित संगीन अपराध के रूप में
स्थापित हो चुके हैं, इस समस्या से निबटने में कितना सक्षम है.
दूसरी तरफ विशेषज्ञों के एक समूह का
यह भी कहना है
कि यह विधेयक ट्रैफिकिंग
के मूल
कारणों को संबोधित करने के बजाय कठोर दंड के माध्यम से तस्करी को रोकने की
परिकल्पना पर आधारित है और यह वास्तव में रक्षा करने के बजाय तस्करी के शिकार
व्यक्तियों के मानव अधिकारों को कमजोर कर सकता है। इसलिए अधिकार-आधारित क़ानून जो
एक डिसेंट वर्क (यानि कि हर एक के लिए काम के अवसर, जो कि उत्पादक हो और एक उचित आय, कार्य
स्थल में सुरक्षा और कामगार के परिवार के लिए सामाजिक सुरक्षा प्रदान करता हो) को
बढ़ावा देता हो,
मानव तस्करी को रोकने के लिए ज्यादा रचनात्मक
तरीका होगा.
दूसरा पहलू इसके क्रियान्वयन से जुड़ा
है क्यूंकि वर्तमान में भारत में कई ऐसे कानून हैं, जिसमें अनैतिक
व्यापार (निवारण) अधिनियम, 1956, बंधुआ मजदूर (उन्मूलन) अधिनियम, 1976, किशोर
न्याय अधिनियम और आई पी सी की धाराएं भी शामिल हैं, जो ट्रैफिकिंग के मामलों में उपयोग
में लिए जाते हैं और अगर इस नए विधेयक के अनुसार देश में तस्करी से
सम्बंधित सभी मौजूदा कानूनों के प्रावधानों को पहले की तरह बरक़रार रखा जाएगा और तब
निश्चित रूप से अलग-अलग प्रावधानों और प्रक्रियाओं की वजह से कानून की पालना कराने
वालों में भ्रम की स्थिति पैदा हो सकती है. जैसे जबरन श्रम जैसे अपराध की स्थिति
में यह तय करना मुश्किल होगा कि 1976 का बंधुआ मजदूर (उन्मूलन) अधिनियम के
प्रावधान उपयोग में लिए जाएँ या फिर इस नए कानून के.
इसलिए सरकार से यह अपेक्षा है कि
मौजूदा विधेयक, जिसे
सरकार पारित कराने की तैयारी में है, को एक व्यापक क़ानून के रूप में लाया
जाय और मौजूदा कानूनों को इस कानून में एकीकृत किया जाये. अगर यह नहीं हो पाता है
तो मानव तस्करी के मामलों से निबटने में अलग-अलग कानूनों के प्रावधानों और
प्रक्रियाओं की वजह से स्थिति साफ़ नहीं बल्कि और जटिल
हो जायेगी.
*ओम
आर्य
लेखक सेव द चिल्ड्रन संस्था में राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र
राज्यों के लिए रीजनल एडवोकेसी मैनेजर हैं और ये उनके स्वतंत्र विचार हैं
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