हो जो तपती धूप तो थोड़ा ठहर जाता हूँ मैं
बारिशों में अपने सहराओं पे झर जाता हूँ
रोज़ सुब्ह को देखता हूँ अपने दिल का आइना
और कितनी ही तमन्नाओं से भर जाता हूँ मैं
चूम लेता हूँ तुम्हारे हाथ अपने ख़्वाब में
किस सफ़ाई से ये अपना काम कर जाता हूँ मैं
इश्क़ बस इतना बचा है अब मुक़द्दर में मेरे
नाम लेते हैं वो मेरा और मर जाता हूँ मैं
वो तुम्हारी अंजुमन हो या वफ़ाओं का महल
क्या कहूँ किस राह से कैसे गुज़र जाता हूँ मैं
पूछता है ढलता सूरज मुझसे दिन भर का हिसाब
"शाम को जिस वक़्त खाली हाथ घर जाता हूँ मैं"
कह रहा था इक सफ़ीना कल ये 'साहिल' से यूँ ही
देखता है प्यार से दरिया तो डर जाता हूँ मैं
©️✍️ लोकेश कुमार सिंह 'साहिल'
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