जिनको गा कर
हम भीतर से
और अधिक बिखरे
सूखे अश्कों
की बारिश में
ऐसे गीत झरे
पता नहीं कब
क्यों आँखों का
पानी रीत गया
कालचक्र का
टूटा पहिया
कालातीत गया
बीत गया
सब कुछ लेकिन हम
रहे वहीं ठहरे
ख़ुशियों की
पायल से झंकृत
कुछ भी याद नहीं
अभिनय में
हम निपुण रहे
भूले संवाद नहीं
भूल गये
वे घड़ियाँ जिनमें
हम थे हरे-भरे
ध्रुवतारे सा
अटल दुःख अब
मीत हुआ अपना
दिन में भी
देखा करते हम
रातों का सपना
मुस्कानों की
आहट से हम
रहते डरे-डरे
ख़ूब झर रहे
गीत मगर ये
शब्दातीत नहीं
अर्थकोश से
रीते घट में
अब संगीत नहीं
पनघट में
हम डूब चुके थे
मरघट में उभरे
©️✍ लोकेश कुमार सिंह 'साहिल'
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