बदल गई जिंदगी
ऋषिकेश राजोरिया
पत्नी और बेटे के साथ भाइंदर में रहना शुरू किया तो जिंदगी बदल गई। अकेले रहने पर कितनी स्वच्छंदता और स्वतंत्रता रहती है, और परिवार के साथ रहने पर किस तरह बंधन में रहना पड़ता है, इसका अंतर मालूम पड़ने लगा था। एक दिन जावेद भाई की साप्ताहिक छुट्टी थी, राकेश दुबे और मैं, दोनों गैरहाजिर रहे। किसी कार्यक्रम में चले गए थे, इसलिए दफ्तर नहीं पहुंच सके। समाचार डेस्क सुनसान रही। अगले दिन राहुल देव ने एक नोटिस दे दिया। आपके बगैर सूचना के गैरहाजिर रहने से पेज निकालने में परेशानी हुई, इसके लिए आप जिम्मेदार हैं। साथ ही उन्होंने स्पष्टीकरण मांगा। ऐसा ही नोटिस उन्होंने राकेश दुबे को भी दिया था। मुझे जिंदगी में पहली बार नोटिस मिला था। किसी ने मुझे बताया था कि लगातार तीन बार नोटिस मिलने के बाद चौथी बार नौकरी से बगैर कारण बताए हटाया जा सकता है। मैंने सोचा कि नोटिस का जवाब इस तरह देना चाहिए कि अगली बार कभी अपने को नोटिस न मिले। मैंने नोटिस का जवाब लिखने में चार पेज भर दिए।
राहुल देव के सामने सवाल उठाया कि जब मैं गैरहाजिर था, काम में तकलीफ हुई तो इसका मतलब यह हुआ कि मैं महत्वपूर्ण काम करता हूं और मेरे नहीं रहने से पेज निकालना मुश्किल हो जाता है। मेरी गैरहाजिरी में आप दफ्तर में थे तो आप क्या कर रहे थे? आपकी मौजूदगी में पेज निकालने में तकलीफ कैसे हो सकती है? अगर आप मेरी सेवाओं को महत्वपूर्ण मानते हैं तो प्रमोशन क्यों नहीं करते? इस तरह की तमाम अनर्गल बातों से भरा हुआ भारी भरकम जवाब मैंने राज बहादुर से टाइप करवाकर घड़ी करके लिफाफे में रखकर राहुल देव की टेबल पर रख दिया और उसकी प्रतिलिपि प्रभाष जोशी के पास दिल्ली भेज दी। एक प्रतिलिपि कार्मिक विभाग को भेज दी।
वह जवाब मैंने सदानंद गोडबोले और देवेन्द्र राठौर को भी पढ़वाया, जिनको एक दिन मैंने भाइंदर में अपने घर भोजन पर आमंत्रित किया था। वे दोनों भी उन दिनों भाइंदर में ही रहते थे। नोटिस पर मेरा जवाब पढ़ने के बाद राहुल देव की प्रतिक्रिया थी, इस लड़के के मन में कितना जहर भरा हुआ है। किसी ने बताया कि प्रभाष जोशी भी जवाब पढ़ने के बाद हैरान हुए और राहुल देव से पूछा कि नोटिस देने की क्या जरूरत थी? इस तरह के विवाद मौखिक ही निबटा लेने चाहिए। कार्मिक विभाग ने उस जवाब के आधार पर जांच शुरू करवा दी थी, जिसके तहत सोमजी ने मुझसे पूछताछ की थी। मुझे उस नोटिस का जवाब इस तरह नहीं देना था, लेकिन मैंने अपनी सुरक्षा का ध्यान रखते हुए यह हरकत की थी, जिससे आगे चलकर नोटिसों का चक्रव्यूह न रचा जा सके। यह नोटिस आगे चलकर मुझे भारी पड़ने वाला था।
राहुल देव बंबई में जो नेतागीरी कर रहे थे, वह मेरे दिमाग में नहीं बैठ रही थी। हिंदी पत्रकार संघ बना, उसमें मैंने भी सक्रिय भूमिका निभाई। हरीश पाठक ने महासचिव की भूमिका में पत्रकारों के संगठन में जान डाल दी। अध्यक्ष की भूमिका में द्विजेन्द्र तिवारी भी कमजोर नहीं थे। नवभारत टाइम्स, धर्मयुग के अलावा शाम के सभी अखबारों, निर्भय पथिक, महानगर, दो बजे दोपहर, संझा जनसत्ता, दोपहर का सामना के पत्रकारों के अलावा स्वतंत्र अखबार और अन्य अखबारों के हिंदी पत्रकार भी सदस्य बन गए थे।
दो साल में मैंने यहां राहुल देव को कभी कुछ लिखते नहीं देखा। शिवसेना के खिलाफ उनकी राजनीति अजीब थी। बंबई में शाम के अखबार महानगर के संपादक निखिल वागले का शिवसेना के साथ विवाद चलता रहता था। यह वहां की धारावाहिक कहानी थी। शिवसैनिकों ने महानगर के दफ्तर पर हमला किया तो राहुल देव ने कुछ पत्रकारों के साथ फोर्ट इलाके में शिवसेना के खिलाफ धरना दिया। धरने से लौटते हुए पत्रकारों पर कथित शिवसैनिकों ने हमला कर दिया। मणिमाला के दांत टूट गए। मिलिंद खांडेकर कुछ दिन अस्पताल में भर्ती रहा। तब राहुल देव ने एक लेख बाल ठाकरे के खिलाफ लिखा था, जिसके छपने के बाद दिल्ली से उन्हें सलाह दी गई थी कि जो भी लिखें, छपने से पहले दिल्ली भेजकर दिखवा लें।
दूसरी तरफ दोपहर का सामना शुरू होने के बाद उसमें राहुल देव के खिलाफ प्रकारांतर से शब्दयुद्ध शुरू हो गया था। संजय निरुपम उसके संपादक थे। प्रमुख सहयोगी प्रेम शुक्ल। उसमें काला साहित्य नाम से एक साप्ताहिक स्तंभ शुरू हुआ, जिसमें प्रसिद्ध पत्रकारों/लेखकों के बारे में उनका नाम लिए बगैर अशोभनीय बातें छापी जाती थीं। उसमें राहुल देव की टीम के लोग निशाने पर होते थे।
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