जिसे देखने आया था मैं
वो मेला अब छूट रहा
जिसकी अँगुली थाम रखी थी
उसने मुझको छोड़ दिया
भूलभुलैया भटकन वाली
अजब भीड़ से जोड़ दिया
बाहर सबसे जुड़ा हुआ हूँ
भीतर-भीतर टूट रहा
जहाँ जहाँ लगने थे जो जो
वही निशाने चूक रहे
खास देखने वाले मुझसे
सभी ठिकाने चूक रहे
सम्बन्धों के इस मेले का
हर विच्छेद अटूट रहा
छूट रहे सब संगी-साथी
खेल-खिलौने छूट रहे
दृष्टि-अगोचर छूट रही है
स्वप्न-सलौने छूट रहे
रीत रहा साँसों का पनघट
घट मरघट पर फूट रहा
कल तक जो अम्बर छूता था
वो झूला अब उतर रहा
काया के उजले दर्पण को
कोई चूहा कुतर रहा
लगता है मेरी मिट्टी को
वो कुम्हार फिर कूट रहा
0 टिप्पणियाँ