यूँ तो ख़ुदा की ज़ात का टुकड़ा है आदमी

लेकिन उसी के नाम पर लड़ता है आदमी


मिट्टी गगन के साथ हैं पानी हवा औ आग

इनके घुले खमीर से बनता है आदमी


अपनी तमाम चाहतें ख़ुद ही ये मारता

उस पर कमाल ये है कि ज़िन्दा है आदमी


जिसका न कोई आदि है जिसका न कोई अंत

ऐसे ही एक खेल का हिस्सा है आदमी


तब-तब ही कायनात में टूटी है कोई चीज़

जब-जब भी अपनी ज़ात से भटका है आदमी


वीरानियों की बज़्म में आबाद था मगर

"आबादियों के शह्र में तन्हा है आदमी"


'साहिल' की ओर देख वो रोता था ज़ार-ज़ार

कश्ती के साथ-साथ जो डूबा है आदमी

©️✍️ लोकेश कुमार सिंह 'साहिल'