पदयात्रा में नौकरी की पेशकश
ऋषिकेश राजोरिया
चंद्रशेखर चलते हुए मेरा परिचय प्राप्त कर रहे थे। इंदौर में निवास, बीएससी तक शिक्षा, शहर से पलायन, बंबई प्रवास आदि की जानकारी के बाद उन्होंने बगल में चल रहे पीके अन्नापाटिल की तरफ देखा। पीके अन्नापाटिल महाराष्ट्र के बड़े नेता थे। चंद्रशेखर के प्रशंसक और समर्थक थे। चंद्रशेखर ने मुझसे कहा, नौकरी करोगे? इनकी सुगर फैक्टरी में केमिस्ट की नौकरी मिल जाएगी। मैंने पीके अन्नापाटिल की तरफ देखा और मुझे प्यारेलालजी का सबक याद आया कि जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। लेखन, संपादन, प्रकाशन आदि का काम मैं हाथरस में सीखकर आया था। इसलिए मैंने कहा, मुझे किसी प्रकाशन संस्थान में काम करना है। तो तुम्हारे लिए प्रकाशन संस्थान कहां खोलें….? चंद्रशेखर ने कहा और बात आई गई हो गई। केमिस्ट की नौकरी उस समय मुझे तत्काल मिलने वाली थी।
चंद्रशेखर की पदयात्रा पूरी योजना बनाकर निकाली जा रही थी। सुधीन्द्र भदोरिया ने पदयात्रा शुरू होने से पहले रास्ते तय करने के लिए कई यात्राएं की थीं। दिल्ली में बनी राजनीतिक परिस्थितियों में चंद्रशेखर एक तरफ हाशिए पर पहुंच गए थे। वे उस जनता पार्टी के अध्यक्ष थे, जिसकी केंद्र में सरकार बनते हुए उन्होंने देखी थी। जनसंघ, लोकदल, संगठन कांग्रेस सहित पांच पार्टियों ने एक होकर जनता पार्टी बनाई थी। जनता में इंदिरा गांधी के आपातकाल को लेकर गुस्सा था। परिणाम स्वरूप चुनाव में जनता ने कांग्रेस को सबक सिखा दिया था और जनता पार्टी के नेताओं को सरकार बनाने का मौका मिला था। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। चरण सिंह, जगजीवन राम, अटल बिहारी वाजपेयी, जार्ज फर्नांडिस आदि उस सरकार के वरिष्ठ मंत्री थे।
सरकार चला रही पार्टी जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर थे। दो साल के भीतर उस सरकार की सरकस से तुलना होने लगी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वहां भी बीच में आया। दोहरी सदस्यता का मामला उठा। इंदिरा गांधी चुनाव हारने के बाद अपनी राजनीति कर रही थी, जिसका नतीजा यह हुआ कि मोरारजी देसाई को इस्तीफा देना पड़ा, चरण सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, इंदिरा गांधी ने उन्हें बाहर से समर्थन देने से इनकार कर दिया और इस तरह देश में फिर मध्यावधि चुनाव की नौबत आ गई। इंदिरा गांधी दुबारा प्रधानमंत्री बन गईं। इसके साथ ही जिन पार्टियों ने एकजुट होकर जनता पार्टी बनाई थी, वे सब अलग हो गई।
जनसंघ भारतीय जनता पार्टी में तब्दील हो गया। लोकदल अलग हुआ। बाद में उसमें से कई नए दल बने। जनता पार्टी नाम से जो समूह बचा रह गया था, उसके अध्यक्ष चंद्रशेखर बने रहे। कर्नाटक में उसकी सरकार थी। रामकृष्ण हेगड़े मुख्यमंत्री थे। इस तरह कई समाजवादी नेता चंद्रशेखर से जुड़े हुए थे। बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में चंद्रशेखर को अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाना भी जरूरी था, क्योंकि वे छोटे नेता नहीं रह गए थे। उनका जीवन सादगी से भरा हुआ था और सोच विचार का दायरा बहुत बड़ा था। वे देश में जनसाधारण को जोड़कर बड़ा संगठन खड़ा करना चाहते थे, जो देशहित में मिशन की तरह काम करे।
चंद्रशेखर पदयात्रा के जरिए देश को देखना चाहते थे। महसूस करना चाहते थे कि क्या ऐसा हो सकता है? दिल्ली में होने वाली राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में उन्हें तमाम खट्टे अनुभव हुए थे। पदयात्रा कुछ समय के लिए दिल्ली की राजनीति से अलग होने का प्रयास भी था। यकीनन यह चंद्रशेखर के जीवन का बहुत बड़ा फैसला था। अपने जीवन और भविष्य को दाव पर लगाने जैसा था। 6 जनवरी 1983 को कन्याकुमारी से उन्होंने पदयात्रा की शुरूआत की थी। कन्याकुमारी को तीन सागरों का संगम स्थल माना जाता है। अरब सागर, हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी। कन्याकुमारी में एक चट्टान पर स्वामी विवेकानंद ने ध्यान लगाकर देश का भविष्य देखा था। वहीं से चंद्रशेखर ने भी पदयात्रा शुरू की। साथ में थे कुछ विश्वस्त सहयोगी। भाई वैद्य, माधवजी, सुधीन्द्र भदोरिया, ब्रह्मदत्त गौड़, सूर्य कुमार, किशन सिंह तोमर, उमेश चतुर्वेदी आदि और कुछ स्थानीय लोग सभापति, राजेन्द्रन, चंद्रन, शंकर आदि। पचास से ज्यादा लोग नहीं थे। इन सभी को पैदल चलते हुए 25 जून 1983 को दिल्ली पहुंचना था।
किस दिन कहां से कहां तक चलना है, कहां रुकना है, पदयात्रियों के भोजन, ठहराव की क्या व्यवस्था होगी, इन सभी बातों का ध्यान रखते हुए पदयात्रा का कार्यक्रम बनाया गया था, जो ठीक चल रहा था। बंबई तक पहुंचते पहुंचते पदयात्रा की लोकप्रियता इतनी बढ़ गई थी कि मेरे जैसा व्यक्ति भी इसमें शामिल हो गया था। चलना और चलना। चंद्रशेखर का उत्साह देखते ही बनता था। वे पूरी तरह पैदल ही रहते थे। पदयात्रियों के बीच ही रहते थे। इतना अवश्य होता कि जहां पदयात्री नीचे लेटे हुए हों, वहां उनके लिए खाट लग जाती। लेकिन इतने बड़े नेता का इस कदर सादगी से रहना हैरतअंगेज था। पदयात्रा आगे बढ़ रही थी और चंद्रशेखर से मेरी निकटता भी। पदयात्रा में चंद्रशेखर के भाषण मुख्यतः पानी के संकट, सामाजिक सौहार्द्र, गर्भवती माताओं के कल्याण, आदिवासियों की सुरक्षा, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा आदि विषयों पर केंद्रित रहते। पदयात्रा में रोजाना पच्चीस से तीस किलोमीटर का सफर तय हो जाता था। पदयात्रा महाराष्ट्र पार कर मध्य प्रदेश की ओर बढ़ रही थी। और मैं भी पदयात्रा का महत्वपूर्ण सदस्य बन गया था। कवि और सोलंकी मुझे अजीबो गरीब नजरों से देखते। बाकी पदयात्रियों से भी पहचान बढ़ने लगी। पदयात्रा में आनंद आने लगा था।
(लेख में प्रस्तुत विचार लेखक के अपने हैं। Rajkaj.News की इन विचारों से सहमति अनिवार्य नहीं है। किंतु हम अभिव्यक्ति की स्वंत्रता का आदर करते हैं।)
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