अपमान का बदला
ऋषिकेश राजोरिया।
पदयात्रा में सौ से ज्यादा लोग स्थायी रूप से चल रहे थे। कवि और सोलंकी ने मेरा जो अपमान किया, उससे मैं आहत था। सबसे पहले मैंने अपने बालों का मुंडन करवा दिया। यह सोचकर कि पदयात्रा में दिल्ली तक चलना है, दो महीने लगेंगे, तब तक बाल फिर उग आएंगे। यहां पदयात्रा में कंघी की जरूरत से मुक्ति मिलेगी। अगले दिन पदयात्रा रवाना होने वाली थी, तब मैंने मंदिर की पोशाक पहन ली। धोती और कुर्ता। धोती लुंगी की तरह। कंधे पर लाल गमछा। पैंट शर्ट संदूक में रख दिए। हाथ में एक डायरी ले ली और पेन संभाल लिया। कविताओं की पंक्तियां सोच सोचकर लिखने लगा। पिछले दिन पदयात्रा में मैंने देखा था कि कवि अवध बिहारी सिंह विश्राम के लिए रास्ते में रुकते समय चंद्रशेखर को कविता सुनाता था।
मैंने सुंदरकांड कंठस्थ कर रखा था। अब कंठस्थ नहीं है। गीता और रामचरितमानस हमेशा मेरे साथ रहती थी। अब भी रहती है। काव्य कला का ज्ञान संगीत कार्यालय, हाथरस में मिला था। इस ज्ञान का उपयोग पदयात्रा में अपमान करने वाले कवि से बदला लेने में हुआ। अगर वह इतनी ऊंची आवाज में बोल रहा था कि पता नहीं कहां कहां से भिखमंगे पदयात्रा में आ गए हैं, तो किस वजह से? सिर्फ इस वजह से कि वह कविता लिखता था। चंद्रशेखर को सुनाता था। चंद्रशेखर उसकी इज्जत करते थे। चंद्रशेखर से मिलने वाली उस इज्जत को वह मेरे जैसे पदयात्रियों की बेइज्जती करने में खर्च करता था।
चंद्रशेखर का व्यक्तित्व विराट था। वे सबसे बहुत अच्छी तरह बात करते थे और पूरा ध्यान रखते थे कि उनकी वजह से किसी को कोई तकलीफ न हो। पदयात्रा में वे सबसे आगे होते थे। उनके अगल बगल में आम तौर पर भाई वैद्य, कवि अवध बिहारी सिंह, सोलंकी, गौड़, किशन सिंह तोमर आदि रहते थे। उनके पीछे बाकी पदयात्री रहते थे, जो अलग अलग गुटों में बंटे हुए थे। दो महिलाएं भी पदयात्रा में शामिल थीं। केरल की रोजलीन और दिल्ली की पत्रकार सुशीला। लगातार सड़क पर चंद्रशेखर के साथ चलते रहना मुख्य काम था। साथ में चलने वाले करीब तीन वाहनों में से एक वैन पदयात्रा के आसपास ही रहती थी। वैन का प्रभार मास्टर सूद संभालते थे, जो दिल्ली में एक स्कूल के अध्यापक थे और चंद्रशेखर के परिवार के बच्चों को पढ़ाते थे।
एक स्थान पर काफी पेड़ देखकर चंद्रशेखर वहां रुक गए। पेड़ की छाया में तिरपाल बिछा दी गई। चंद्रशेखर बैठ गए। उनके साथ भाई वैद्य थे, कवि थे। बाकी पदयात्री भी जहां जगह मिली, वहां बैठ गए। वैन में से कुछ स्नैक्स निकालकर पदयात्रियों को दिया गया। चंद्रशेखर ने भी हल्का नाश्ता किया। उन्होंने कवि की तरफ देखा। क्या लिखा है….? कवि ने डायरी खोली और जो पंक्तियां लिखी थी, उसका पाठ करने लगा- ये कोन नया सूर्य जलधि से निकल रहा…..कन्याकुमारी अंतरीप से मचल रहा….. जैसे इस युग में कोई राम आ गया….. क्षत्रियों के दलन को परशुराम आ गया……….उसने चंद्रशेखर की स्तुति में ये पंक्तियां सुनाईं। मैं उनके सामने ही बैठा था। मेरी धड़कनें बढ़ गई थीं। मुझे भी कविता सुनानी थी।
अवध बिहारी का काव्य पाठ समाप्त होने के बाद मैंने साहस जुटाकर कहा, अध्यक्षजी, मैं भी एक कविता सुनाना चाहता हूं। चंद्रशेखर ने सवालिया नजरों से देखा और कहा, सुनाओ। मैंने डायरी खोली और हनुमानजी को याद करके कविता सुनाने लगा – दच्छिन से कर सुरू लड़ाई, जा पहुंचे उत्तर को भाई/राष्ट्रधर्म को इष्ट मानकर, पहुंच रहे दिल्ली करुनाकर/आनन फानन क्रांति मचाई, घबराई अब बड़ी लुगाई/चमचा उसके धूर्त सयाने, फोन करत हैं थाने थाने/पग पग चलहिं युवक जे नाना, ते मन में डर कछू न माना/आपस में सब शर्त लगाई, दूर हटेगी अब महंगाई/सुनि अस बचन मनुज हरसाहीं, जुटन लगे सब चंदू पाहीं/राजनीति जब उखड़न लागी, सुप्त पड़ी जब जनता जागी……. हिलन लगी सब कुर्सियां, जोड़-जोड़ चर्राय, मोट-मोट भरपेट सब शेखर पे गुर्रायं …. सिया वर राम चंद्र की जय।
कविता सुनकर चंद्रशेखर जोर से हंस पड़े – वाह रे तुलसीदास, कहां से अवतरित हुए हो। फिर मैंने बताया कि इंदौर का रहने वाला हूं, बंबई में मंदिर में रहता था, पदयात्रा देखी तो शामिल हो गया। चंद्रशेखर ने पूछा, कविताएं कब से लिखते हो? मैंने कहा, कल से। आपके पास जो कवि बैठे हैं, इन्होंने मुझे देखकर कहा था कि पता नहीं कहां कहां से भिखमंगे चले आते हैं। इनकी बात सुनकर मुझे लगा कि पदयात्रा में इज्जत के साथ चलना हो तो कविता लिखना जरूरी है। यही सोचकर मैंने कविता लिखी। मेरी बात से वहां बैठे सभी पदयात्री स्तब्ध रह गए। चंद्रशेखर ने कवि की तरफ देखा और पूछा, क्या आप ऐसा करते हैं…….? जब उस जगह से रवाना हुए तो चंद्रशेखर मेरे कंधे पर हाथ रखे हुए थे और वह कवि जान बूझकर पदयात्रियों के समूह में काफी पीछे चल रहा था।
(लेख में प्रस्तुत विचार लेखक के अपने हैं। Rajkaj.News की इन विचारों से सहमति अनिवार्य नहीं है। किंतु हम अभिव्यक्ति की स्वंत्रता का आदर करते हैं।)
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