प्रधान संपादक प्रवीण दत्ता की कलम से।

शनिवार को जिस तरीके से पंजाब के मलोट के भाजपा विधायक अरुण नारंग के साथ प्रदर्शनकारी किसानों ने मारपीट की उससे किसान विरोधी ताकतें ही मजबूत हुई हैं।  आपको बता दें पंजाब की कांग्रेस सरकार के 4 साल पूरे होने का विरोध करने के लिए विधायक नाराज प्रेस वार्ता के लिए भाजपा कार्यालय पहुंचे थे। आंदोलनकारी किसानों को इसकी खबर थी सो उन्हौने अरुण नारंग और मुक्तसर के प्रधान राजेश पठेला को घेर लिया और मारपीट शुरू कर दी।  पंजाब पुलिस किसानों पर बल प्रयोग से बची लेकिन इसी बीच उग्र प्रद्रशनकारियों ने भाजपा विधायक के कपडे फाड़ कर उन्हें नंगा कर दिया।  बड़ी मुश्किल से पुलिस भाजपा विधायक को बचाते हुए पास की एक दूकान में घुसकर और उग्रता से बचा पाई। 26 जनवरी को देश की राजधानी में हुई हिंसा के बाद किसान आंदोलन में यह दूसरा काला अध्याय है।  दिल्ली में हुई हिंसा में तो सरकारी हस्तक्षेप की बात मानी जा सकती है लेकिन शनिवार की पंजाब की घटना ने तो अहिंसक किसान आंदोलन को बदनाम ही किया है। परन्तु यहाँ एक बात बहुत महत्वपूर्ण है।  क्या आंदोलन को लम्बा खींचकर केंद्र सरकार कहीं किसानों के सब्र के टूटने का ही तो इंतज़ार नहीं कर रही थी। 


बीते शुक्रवार पंजाब से ट्रैन देरी से चलने और स्थगित होने के समाचार आए थे और आज यह हिंसा का समाचार।  याद दिला दूँ की दिल्ली सीमा पर डेरा डालने से पहले पंजाब के किसान और मोदी सरकार का रेलवे मंत्रालय ऐसी ही लड़ाई में फंसा था जिससे तंग आकर किसान दिल्ली बॉर्डर पर आ बैठे। एक ओर जहाँ आज हुई हिंसा का लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं है वहीँ दूसरी और लोकतंत्र में असंवेदनशील सरकार का भी कोई स्थान नहीं है।  आज की भाजपा विधायक से हुई मारपीट का जवाब केंद्र सरकार कहाँ  और कैसे देगी ? जल्द सामने आ जायेगा। बस बंगाल का चुनाव निपटने दीजिये। किसानों का आंदोलन अब तक स्फूर्त और बिना किसी औपचारिक नेतृत्व के चला है।  अब राकेश टिकैत ने जब देश भर में सिकी अलख जगाने का बीड़ा उठाया है तो फिर उन्हें ही पंजाब के किसान नेताओं से बात कर आंदोलन को सही दिशा में रखने को सख्ती से कहना चाहिए।  वैसे पीर पर्वत सी हो गई, अब पिघलनी चाहिए।