साहिल साँच - 6 

                                                                           


यह बात तो आईने की तरह साफ़ है और अन्धे को भी नज़र आ सकती है कि 2014 के बाद से भारत में हिन्दू-मुस्लिम एकता व सौहार्द में पड़ी दरार और अधिक गहरी हुई है । बल्कि ये दरार इस सीमा तक आ गयी है कि जिन हिन्दुओं ने 1947 में पाकिस्तान को अपना मुल्क चुना उनको भारत का वफ़ादार और जिन मुसलमानों ने हिन्दुस्तान को अपना देश चुना उनको ग़द्दार साबित करने की पुरज़ोर कोशिश हो रही है । 

इस बात में भी शायद ही किसी को संशय हो कि इस दरार को और अधिक गहरा करने का काम बाक़ायदा एक पॉलिटकल-एजेण्डे के तहत किया जा रहा है तथा इस एजेण्डे का चुनावी लाभ भी एक नेता विशेष (दल तो वहाँ भी गौण हो चुका है) को ख़ूब हो रहा है ।

संघ-परिवार को लगभग 90 वर्ष की कुटिल-तपस्या के बाद ऐसी सार्वभौम-सत्ता हाथ लगी है और वे इस सत्ता को बनाये रखने के लिये किसी भी हद तक जा सकते हैं । जो लोग संघ को जानते हैं वे इस बात को ख़ूब समझते हैं कि संघ के लिये व्यक्ति नहीं विचारधारा का महत्व अधिक है । व्यक्ति को सीन से हटा कर भी यदि उनके वैचारिक उद्देश्यों की पूर्ति होती हो तो वे तनिक भी नहीं हिचकिचाते हैं ।

देश का तथाकथित विपक्ष लगभग बेचारगी की हालत में है और सत्ता-पक्ष द्वारा किसी भयंकर ब्लंडर करने का इन्तेज़ार करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पा रहा है । वैसे भी सामाजिक स्तर पर लड़ी जाने वाली लड़ाई को केवल राजनीतिक स्तर पर लड़ना सम्भव भी नहीं होता है । इस लड़ाई में तो महात्मा गाँधी भी हार गये थे और देश बँटा था ।

यहीं वो यक्ष प्रश्न खड़ा होता है कि हिन्दू-मुसलमान की इस लड़ाई में मुसलमान अपनी लड़ाई को किस तरह से लड़ रहा है या किस तरह से लड़ना चाहता है । हिन्दुओं में तो अभी भी बहुत बड़ा वर्ग है जो अपनी ही क़ौम की गालियाँ खा कर भी इस लड़ाई को लड़ रहा है । यही वो वर्ग है जो लड़ाई को 80 बनाम 20 होने से बचाये हुए है । वरना तो इस बात को समझना कोई रॉकेट-साइंस नहीं है कि यदि लड़ाई पूरी तरह 80 बनाम 20 की हो गयी तो उसका चुनावी अर्थ क्या है ।

अब तय इस देश के मुसलमान को करना है कि वे इस लड़ाई को किस लॉजिकल-कन्क्लूज़न की ओर ले जाना चाहते हैं । उनके वोट की ताक़त का असर लगभग निस्सार होता जा रहा है । उनको बहुत साफ़-साफ़ यह सन्देश दिया जा चुका है कि तुम किसी को भी वोट करो , तुम्हारे वोट से हार-जीत अब तय नहीं होगी ।

इस देश के मुसलमानों ने 1947 के बाद से ही अपनी रहनुमाई ग़ैर-मुस्लिम लोगों के हाथ में रखी , ख़ुशी-ख़ुशी रखी । इस बात का उनको लाभ कम हुआ , नुकसान अधिक हुआ । 

एक बड़ा नुकसान तो यह हुआ कि वे अपने धार्मिक-नेतृत्व के शिकन्जे से बाहर नहीं आ सके और भारत के मुसलमानों का जो धार्मिक-नेतृत्व रहा उसके तार धार्मिक कारणों से देश से बाहर की ताक़तों से जुड़े रहे । यद्यपि देश से ग़द्दारी वाला कोई तत्व इसमें ढूँढना मूर्खता ही होगी । लेकिन इस धार्मिक-नेतृत्व ने राजनीतिक लाभ उठाया तो ख़ूब लेकिन उसे अपनी क़ौम तक नहीं पहुँचाया ।

हमें यह याद रखना चाहिये कि लोकतन्त्र का स्थायी लाभ उसी क़ौम , समुदाय , वर्ग और तबके को मिलता है जो लोकतन्त्र के खेल को समझदारी से खेलना भी जानता हो और ख़ुद भी लोकतान्त्रिक-मूल्यों के लिये काम करने का सामर्थ्य रखता हो । 

हालांकि अब तो देश में जो हालात हैं उनमें इस लोकतन्त्र पर भी सवालिया निशान उठ रहे हैं । इस चौखम्बे-लोकतन्त्र के शेष तीनों खम्बों ने एक खम्बे-विशेष के आगे समर्पण कर दिया है । लेकिन यह पहली बार नहीं है , भारत में ऐसा पहले भी हो चुका है । 

ख़ैर ! विषयान्तर न करते हुए मैं अपनी बात को कुछ प्रश्नों के साथ समाप्त करता हूँ :-- 

(1) क्या भारत का मुसलमान जाने-अनजाने वर्तमान सत्ता के षड्यंत्र का टूल नहीं बन रहा है ?

(2) क्या भारत के मुसलमानों का तथाकथित नेतृत्व अपने कथन , आचरण और व्यवहार से वर्तमान सत्ता को लाभ नहीं पहुँचा रहा है ?

(3) मेरे ढेर सारे मुस्लिम मित्र हैं इसीलिये मैं पूरे दावे से इस बात को कह सकता हूँ कि दुर्भाग्य से भारत के मुसलमानों की सिंगुलर-वॉइस और कलेक्टिव-वॉइस में ज़मीन-आसमान का अंतर है । क्या यह बात ग़लत है ?

(4) अपनी धार्मिक चेतना को राजनैतिक  चेतना पर प्रमुखता देना उचित है या अनुचित ?

(5) कोई शाहीन बाग़ या कोई डॉ.कफ़ील ख़ान अभी भी अपवाद ही क्यों हैं , नियम क्यों नहीं हो पा रहे हैं ?

(6) क्यों तारिक़ फ़तह जैसा दो कौड़ी का आदमी मुल्ला का इस्लाम और अल्लाह का इस्लाम जैसी बात करता फिर रहा है और आप अपने आचरण से उसे ग़लत सिद्ध नहीं कर पा रहे हैं ?

प्रश्न और भी हो सकते हैं । 

लेकिन मुझे अब यह बहुत ज़रूरी लगता है कि भारत के मुसलमान इन प्रश्नों से यथाशीघ्र दो-चार हों तथा इनके तार्किक उत्तर ढूँढें , तभी वे उपरोक्त लड़ाई को किसी लॉजिकल-कन्क्लूज़न तक ले जा पायेंगे । 

अन्यथा........???

©️✍ *लोकेश कुमार सिंह 'साहिल'*

( घोषणा - इस लेख में अभिव्यक्त विचार लेखक के अपने हैं। आवश्यक नहीं कि www.rajkaj.news के सम्पादकीय नीति इससे सहमत हो। परन्तु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सम्मान में हम इसे प्रकाशित कर रहें हैं। )